भारतीय राजनीति की यात्रा काफी पुरानी हैं, जो अनेक उतार-चढ़ाव भरे रास्ते से गुजरते हुए वर्तमान तक पहुंची है। भारतीय राजनीति मनु, कौटिल्य, शुक्र से होते हुए वर्तमान तक पहुंची है, लेकिन मैंने इस लेख में आजादी के बाद की भारतीय राजनीति के परिदृश्य को लेखबद्ध करने का प्रयास किया है।
1947 के बाद भारतीय राजनीति में प्रारंभ के दशक में भारतीय समाज मे व्याप्त आर्थिक-सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए प्रयास की राजनीति अहम थी। 1947 के बाद लगभग 17 वर्षों तक के कार्यकाल में पं. जवाहरलाल नेहरू ने भारत को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय हर स्तर पर ऊपर उठाने का प्रयास किया। साथ ही भारत को उस समय सशक्त और सुदृढ़ समाज की स्थापना करने की आवश्यकता थी, जिससे भारत आजादी से पूर्व लगभग 200 साल तक चले अंग्रेजों के शोषण से वापसी करने का प्रयास करें। 17 वर्षों के कार्यकाल में नेहरू द्वारा अनेक स्तर पर प्रयास किए गए।
उस समय भारतीय राजनीति की एक खास विशेषता यह थी कि ना तो उस वक्त मजबूत विपक्ष था और जो था तो वह भी समाज कल्याण के लिए सरकार के साथ या सरकार के खिलाफ जाने से जरा भी नहीं हिचकिचाता था। उस वक्त विपक्ष जनता के लिए था, वर्तमान की तरह विपक्ष केवल 'विपक्ष' नहीं था।
लगभग 17 साल के कार्यकाल में जहां नेहरू अपनी मृत्यु तक देश के प्रधानमंत्री बने रहे तो वह उनकी लोकप्रियता और साथ ही 1885 से कार्यरत कांग्रेस के के कार्यों का मधुर फल था। नेहरू ने इस दौरान जहां एक तरफ गुटनिरपेक्षता जैसी समयानुकूल सफल नीति का प्रतिपादन किया, पालन किया। वहीं दूसरी ओर उनके द्वारा चीन एवं पाकिस्तान के प्रति अपनाई गई विदेश नीति वर्तमान में कश्मीर एवं सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों से संबंधित सीमा विवादों की जड़ बनी, जो कि उनकी विदेश नीति की असफलता को दर्शाती है। विदेश नीति के संबंध में ऐसी ही लचरता भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी दिखाई।
1966 से भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का कार्यकाल प्रारंभ हुआ। उनके कार्यकाल में अनेक सशक्त एवं मजबूत फैसले लिए गए। परंतु इसी दौरान कांग्रेस में बिखराव शुरू हो गया और साथ ही साथ वक्त के साथ कांग्रेस दो धड़ों में बंट गई और इससे भारतीय राजनीति में राजनीतिक दलों की संख्या में इजाफा हुआ। 1971 के युद्ध के बाद भारतीय प्रधानमंत्री ने शिमला समझौते के समय गजब की दृढ़ता दिखाई। 1974 के परमाणु परीक्षण से भारत की शक्ति का पूरे विश्व को एहसास दिलाया। 1977 तक आते-आते भारत को आपातकाल से गुजरना पड़ा। इस आपातकाल का परिणाम यह हुआ कि 1980 तक 3 वर्ष में भारत को गठबंधन सरकार के बल पर 2 गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री(मोरारजी देसाई और चौधरी चरणसिंह) मिले। उस समय गठबंधन सरकारें भारतीय राजनीति के लिए एक प्रयोग के अतिरिक्त कुछ भी नही थी। इस अभिनव प्रयोग में सहज विश्वास की कमी थी। इसी का परिणाम यह हुआ कि दोनों सरकार ही अपना कार्यकाल पूरा नही कर सकी। परन्तु यह भारतीय राजनीति में इस बात का संकेत था कि अब कांग्रेस के विकल्प बनने की क्षमता अन्य दलों में भी हैं, हाँ इसमे थोड़ा वक्त लग सकता है लेकिन यह असंभव नहीं है।
1980 में पुनः एक बार इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई। 1984 में उनकी हत्या के साथ ही भारतीय राजनीति के एक युग का अंत हुआ। 1984 में इंदिरा गांधी के पुत्र राजीव गांधी भारत के प्रधानमंत्री बने। 1984 के आम चुनावों में भारी बहुमत के साथ राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। लेकिन बोफोर्स घोटाले ने भारतीय राजनीति की जड़ों को हिला दिया, नतीजन 1989 के आम चुनावों के बाद कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा।
1989 से 1991 तक भारतीय राजनीति पुनः अस्थिरता के दौर से गुजरी। इन 2 वर्षों में भारत को पुनः 2 गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री (वी.पी. सिंह और चंद्रशेखर) मिले। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद जनसहानुभूति के बल पर पी.वी. नरसिंहराव के नेतृत्व में कांग्रेस की सत्ता में फिर से वापसी हुई। इस दौरान आर्थिक खुलेपन को भारत मे जगह दी गई, इसके अलावा 'लाइसेंस राज' की समाप्ति हुई। इसके साथ ही उथल-पुथल के दौर में मई 1996 से मार्च 1998 तक इन 22 महीनों में 3 गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों (क्रमशः अटल बिहारी वाजपेयी, एच.डी. देवगौड़ा और आई.के. गुजराल) की सरकार बनी, परंतु टिक नहीं सकी।
इसके बाद एक बार पुनः अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) सरकार सत्ता में आई। इस दौरान 1998 में पोकरण में 5 परमाणु परीक्षण किए गए। जिससे पूरे विश्व भर का ध्यान भारत की ओर आकर्षित हुआ। साथ ही विश्व की महाशक्तियों जिन में अमेरिका ने प्रमुख रुप से विरोध जताते हुए भारत पर कुछ प्रतिबंध लगाए। इसके अतिरिक्त भारत को कई देशों की आलोचना का शिकार होना पड़ा। 1999 में भारत को पाकिस्तान के साथ एक और युद्ध का सामना करना पड़ा। 1999 के कारगिल युद्ध में भारत में एक बार फिर से पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी। लेकिन इस युद्ध के परिणाम स्वरुप भारतीय राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयीजी को उनकी पाकिस्तान को लेकर विदेश नीति पर आलोचनाओ से मुखातिब होना पड़ा। साथ ही उन्हें पूरे विपक्ष के विरोध का सामना करना पड़ा और 13 महीने की सरकार चलाने के बाद पुनः चुनावों से सामना हुआ। लेकिन इन चुनावों में फिर से राजग सरकार की सत्ता में वापसी हुई और इस बार स्थिरता के साथ सरकार ने 5 वर्ष पूरे किये। अटल बिहारी वाजपेयीजी ने भारतीय राजनीति इतिहास में लगभग निर्विवाद रुप से सरकार का संचालन किया और इस बात का प्रमाण यह है कि आज भी भारतीय राजनीति में उनका स्थान अग्रणी हैं।
2004 में लोकसभा के चुनाव में संप्रग (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) सरकार का गठन हुआ। कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने स्वयं प्रधानमंत्री बनने के बजाए डॉ. मनमोहन सिंह को देश का प्रधानमंत्री बनाया। वास्तव में यह एक आश्चर्यजनक फैसला था, परंतु इसके पीछे गहन राजनीतिक सोच थी। डॉ. मनमोहन सिंह वास्तव में एक विद्वान अर्थशास्त्री थे, जिन्हें एक तरीके से प्रधानमंत्री पद से नवाजा गया था।अपने लगातार 2 कार्यकाल में से प्रथम कार्यकाल में अमेरिका के साथ परमाणु समझौता किया। 2008 मुम्बई पर आतंकी हमला हुआ, जिससे भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहानुभूति प्राप्त हुई और पाकिस्तान की हर मंच पर किरकिरी हुई। पाकिस्तान को लेकर विदेश नीति उनके कार्यकाल में भी कुछ अस्पष्ट ही रही। परन्तु इसके अलावा उनका प्रथम कार्यकाल ठीक ठाक रहा।
2009 में उनका दूसरा कार्यकाल शुरू हुआ। यह कार्यकाल उनकी छवि के लिए बेहद घातक सिद्ध हुआ। रामदेव के द्वारा कालेधन वापसी के लिए किया गया आंदोलन और उस दौरान सरकार द्वारा दमन के लिए उठाये गए कदम, अन्ना हजारे द्वारा किया गया लोकपाल आंदोलन, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2G घोटाला और इसमें ए. राजा की गिरफ्तारी आदि सब ने भारतीय राजनीति और जनता दोनो को सोचने पर विवश कर दिया।
शायद भारतीय जनमानस को यह समझ आ गया था कि गठबंधन सरकारे देश के लिए घातक हो गई हैं और इसी के चलते भारतीय जनता ने राजनीति में एक भारी परिवर्तन करने की ठान ली। यह परिवर्तन अगले ही आम चुनावों में परिलक्षित हुआ।
2014 के चुनाव परिणामों ने भारतीय राजनीति में 1989 के बाद किसी एक राजनीतिक दल को एक बार पुनः स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। शायद इसकी उम्मीद भारतीय जनता पार्टी को भी नही थी। खैर अकेले भाजपा ने 282 सीटों पर जीत दर्ज की और उसके सहयोगी दलों ने 54 सीटों पर जीत दर्ज की। इस प्रकार कुल 336 सीटों के साथ राजग सरकार बनी। इसका नेतृत्व किया नरेन्द्र मोदी ने। 26 मई, 2014 को शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों को आमंत्रित करने के साथ ही मोदी ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया। कूटनीतिक दृष्टिकोण से भी उनका शानदार कदम था। इसके बाद अपनी पहली विदेश यात्रा के भूटान जाना इस बात का संकेत था कि भारत के लिए एक छोटे से देश का भी उतना ही महत्व है जितना कि एक महाशक्ति का।
इसके बाद उन्होंने चीन, अमेरिका, जर्मनी, जापान, ब्रिटेन आदि सभी देशों के साथ मधुर संबंध स्थापित करने के प्रयास किया। यहाँ तक कि पाकिस्तान की अचानक यात्रा, इज़रायल यात्रा आदि सब से अपनी गहन विदेश नीति का संकेत दिया।
परंतु बारबार पाकिस्तान के आतंकी हमलों और चीनी घुसपैठ के बावजूद पाकिस्तान और चीनी के प्रति अपनाई जा रही नरमी ने विश्लेषकों को चिंता में डाल रखा है।
घरेलू राजनीति में स्वच्छ भारत अभियान, कौशल विकास योजना, मेक इन इंडिया, स्टार्टअप एंड स्टैंड अप योजना उनके सराहनीय प्रयास रहे है। परंतु नोटबन्दी की योजना की वास्तविक लाभ-हानि की गणित अब भी लोगों के लिए रहस्य बनी हुई हैं। क्योंकि वास्तव में यह जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लायी गयी उनको पूरा नही कर पाई, क्योंकि ना इस से सीमा पार से होने वाले घुसपैठ और आतंकी हमलों में कमी आयी, ना जाली नोटों की सप्लाई बंद हुई, ना भ्रष्टाचार में कमी आयी और ना ही गरीबों को कोई लाभ हुआ।
हाँ, इस से जो परिणाम सामने आए वो एक दम उलट रहे, जो निम्नलिखित है-
1. देश की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा और विकास दर नीचे गई, जो 2017-18 कि प्रथम तिमाही में 5.7% रही।
2. भारतीय रिज़र्व बैंक अब नोटबन्दी से प्राप्त नोटों की गिनती कर पाया।
3. देश के सभी छोटे-बड़े उद्योगों पर असर पड़ा, खासकर छोटे उद्यमी इस से परेशान हुए।
4. बैंक कर्मियों ने इसे अवसर के तौर पर देखा और नोटों को अवैध रूप से बदलकर भ्रष्टाचार को कम करने के बजाय इसको बढ़ा दिया।
कालेधन की वापसी की प्रक्रिया भी अब तक रेंग ही रही है। कहते है अगर आलोचनाओ पर गौर फरमाया जाए तो सुधार जल्दी आता है। मुझे हर सरकार की बस एक बात ही समझ नही आती की, वो हमेशा अपनी पूर्ववर्ती सरकार को क्यो कोसती रहती है। अगर हमारे देश की सरकार अपने से पूर्व की सरकार द्वारा की गई गलतियों का रोना रोने के बजाय सुधार करने पर ध्यान देती तो भारतीय राजनीति का आज स्थान ही कुछ अलग और ऊंचे स्तर पर होता। क्योंकि यह तो सहज कार्य है कि हम दूसरों के किये गए कार्य को गलत या सही ठहरा दे परन्तु महानता इसमे है कि गलत को सुधार उसे सही कैसे किया जाए। आज भारतीय राजनीति को इसी ध्येय पर कार्य करने की आवश्यकता है।
वर्तमान सरकार का ध्यान देश हित के बजाय धीरे धीरे चुनावों में विजय प्राप्ति तक सीमित होता जा रहा है। वर्तमान भारतीय राजनीति तुष्टिकरण की राजनीति बनती जा रही है। जिसके कई उदाहरण हमने हाल ही में हुए कुछ राज्यो के चुनावों में भी देखे है। अब आवश्यकता इस बात की है, कि तुष्टिकरण के बजाय देश हित मे काम किया जाए, पार्टी से ज्यादा देश को महत्व दिया जाए क्योकि जनमानस ने जनकल्याण के लिए एक दल को मौका दिया है, न कि दल की सर्वश्रेष्ठता का प्रदर्शन करने के लिए।
वही दूसरी तरफ देखा जाए तो वर्तमान भारतीय राजनीति को एक मजबूत विपक्ष की कमी भी खल रही हैं। लोकसभा में जहाँ विपक्ष के नाम पर कोई भी दल संवैधानिक दृष्टिकोण से योग्यता नही रखता है, परन्तु कांग्रेस और उसके सहयोगी दल विपक्ष में महज बैठने के अतिरिक्त कुछ नही कर पा रहे है, जिसकी कुछ वजह निम्नलिखित है-
1. इच्छाशक्ति का अभाव,
2. राजनीतिक विवशता (यथा- पूर्व में हुए घोटालों की विस्तृत जांच का भय)
3. निहित राजनीतिक स्वार्थ, जो सम्भवतः सभी कारणों में प्रबल कारण प्रतीत होता है।
4. दलीय हित को राष्ट्र हित से ज्यादा वरीयता देना।
उपरोक्त कुछ वजह है जिसके चलते आज 'विपक्ष केवल विपक्ष के लिए' की ही भूमिका तक सीमित रह गया है। क्योंकि अगर ऐसा नही होता तो वो सरकार के हर प्रस्ताव का विरोध नही करता, सिवाय एक प्रस्ताव को छोड़कर (सांसदों के वेतन-भत्तों में बढ़ोतरी) जिसे हर बार बिना बहस और ध्वनिमत के साथ पारित किया जाता है। ऐसी ही कुछ बाते विपक्ष के दोहरे चरित्र को दर्शाती है। ऐसा केवल कांग्रेस के साथ ही नही है, बल्कि सत्तारूढ़ भाजपा ऐसा व्यवहार काफी समय तक दर्शा चुकी है। इसके कुछ उदाहरण भी है, जैसे-
1. जिस GST बिल का विरोध भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए हमेशा किया, उसी बिल को एड़ी-चोटी का जोर लगा पारित करवा लिया।
2. जिस आधार कार्ड योजना का हमेशा विरोध किया उसको सत्ता में आने के बाद हर योजना के लिए अनिवार्य कर दिया।
3. उपरोक्त दोनों उदाहरण तो हो सकता है जनता की समझ से परे हो, परन्तु जिस पेट्रोल और सिलेंडर की मूल्य वृद्धि को लेकर भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए खूब सड़क प्रदर्शन किया था, आज वही भाजपा सत्ता में है तो इसी मूल्य वृद्धि पर मौन धारण किये हुए है।
राजनीतिक दलों का यह दोहरा चरित्र आज स्पष्टतः जगजाहिर है। इसलिए विपक्ष की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह राष्ट्रहित में कार्य करते हुए जनकल्याण के विधेयको में अपनी महत्ता सिद्ध करने के चक्कर के लिये अड़ंगा लगाने के बजाय सरकार का सहयोग करे और ईमानदारी पूर्वक सरकार के अनुचित कार्यों एवं नीतियों के प्रति जनता को सचेत करे।
अंत में इतना कहना चाहूंगा कि आज भारतीय राजनीति पतन की ओर बढ़ रही है और इस बात की महती आवश्यकता है कि इस देश का हर वर्ग चाहे वह युवा हो या वरिष्ठ, मध्यम हो या उच्च, सभी की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे किसी दल या व्यक्ति के अंधभक्त न बनकर विवेक का उपयोग करते हुए देश की बागडोर जिम्मेदार और उत्तम चरित्र वाले व्यक्ति को सौंपे।
जय हिंद, जय भारत।
सोनू सोनी
bahut acche vichar hai aapke
जवाब देंहटाएंThank you Sir Ji.😊
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा है ऐसे ही प्रयास कर ते रहो
जवाब देंहटाएंganbhir lekh likha hai Aapne sonu ji
जवाब देंहटाएंvicharniy lekh
अच्छी knowledge mili sonu ji
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