सोमवार, 25 सितंबर 2017

डिजिटल इंडिया

डिजिटल इंडिया भारत सरकार का यह प्रोजेक्ट है जिसके जरिए सभी ग्राम पंचायत को इंटरनेट ब्रॉडबैंड  के जरिए जोड़ा जाएगा| जिसके तहत ई प्रकाशन को बढ़ावा देने के साथ-साथ अर्थव्यवस्था सुधारने का लक्ष्य है | इस प्रोजेक्ट के अंतर्गत 335 गांव को हाई स्पीड इंटरनेट के जरिए जोड़ा जाएगा| डीआईपी का विमोचन 1 जुलाई 2015 को इंदिरा गांधी स्टेडियम में किया गया डिजिटल इंडिया प्रोजेक्ट के कार्यक्रम में कई कंपनियों के सीईओ ने भाग लिया| इसमें मुकेश अंबानी, साइरस मिस्त्री, अजीज प्रेमजी, सुनील मित्तल आदि सम्मिलित हुए|

डिजिटल इंडिया प्रोजेक्ट के लाभ :-
सभी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को डिजिटल इंडिया प्रोजेक्ट से जोड़ा जाएगा| शहरों में इंटरनेट को बहुत अच्छे से समझ चुके हैं लेकिन फिर भी ई-शॉपिंग, ई स्टडी, ई टिकट, ई बैंकिंग की तरफ  रुझान केवल महानगरों में हैं | छोटे शहर इस तरह की सुविधाओं के प्रति अभी जागरुक नहीं है जबकि यह सब डिजिटलाइजेशन के लिए बहुत जरूरी है| अगर गांव का सोचे तो वह अब तक कंप्यूटर और लैपटॉप खरीदने में असमर्थ है|सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम जनता को डिजिटल दुनिया के प्रति जागरूक करेगा|

* ई-हॉस्पिटल पोर्टल- इसके द्वारा जनता आसानी से डॉक्टर से कंसल्ट कर सकेगी| संकट के समय किसी भी रोग के रोगी के बारे में सभी जानकारी आसानी से पोर्टल के माध्यम से दी जाएगी|

*ई-बस्ता पोर्टल- इसमें छात्रों को पुस्तकें उपलब्ध कराई जाएगी| इसका इस्तेमाल कोई भी कहीं भी कर सकता है | गवर्नमेंट द्वारा संचालित पोर्टल लॉन्च किए जाएंगे जिसमें नौकरियों की सभी महत्वपूर्ण जानकारियां इंटरनेट पर उपलब्ध कराई जाएगी |

*डिजिटल लॉकर- व्यक्ति अपने जरूरी दस्तावेज इसमें सुरक्षित रख सकते हैं | डिजिटल इंडिया प्रोजेक्ट के कारण सभी कार्यों में पारदर्शिता बढ़ेगी| इसके कारण रिश्वत जैसे कार्य कम हो जाएंगे|

*डीआईपी के कारण  सभी कार्य  आसानी से  बिना तकलीफ  के  घर बैठे हो जाएंगे |

*डीआईपी के कारण  देश में  रोजगार बढ़ेगा  तो  देश विकसित बन सकेगा| 

*डीआईपी के कारण लोगों का विकास कई गुना तेजी से बढ़ेगा |

डिजिटलाइजेशन से लोगों के प्रति कार्ड पेमेंट नेटबैंकिंग के प्रति नकारात्मक सोच कम होगी जिससे उनका प्रयोग बढ़ेगा और कालाबाजारी भी कम होगी साथ ही अर्थव्यवस्था में तेजी से विकास होगा|गांव को इस डिजिटल इंडिया प्रोजेक्ट में अहम रखने से इसकी नींव मजबूत होगी| जो कि बहुत जरूरी है क्योंकि शहरी लोग आसानी से स्मार्ट दुनिया को अपनाते हैं लेकिन सुविधा की कमी के कारण गांव के लोग पीछे रह जाते हैं | इस तरह डिजिटल इंडिया इवेंट मै रोज एक नई योजना लाई जाएगी|  जो जनता को इसका महत्व बताएगी | डिजिटल इंडिया प्रोजेक्ट  एक अच्छी शुरुआत है  जिससे देश का विकास एक्सप्लेनेशन ग्राफ की तरह होगा| लेकिन इसके लिए हमें इस तरह की व्यवस्थाओं से जुड़ना होगा | उन्हें सीखना होगा | डिजिटल इंडिया प्रोजेक्ट के तहत कई एडवांस टेक्नोलॉजी तेजी से देश में लाई जाएगी| जिसके लिए रिलायंस विप्रो एवं टाटा जैसी कंपनिया इन्वेस्ट करेगी| इन सभी दिग्गजों का मानना है  इससे देश का बहुत अधिक विकास होगा | रोजगार में वृद्धि होगी | साथ ही  पढ़ाई के लिए भी दूर दूर तक  भटकना नहीं पड़ेगा | भारत का नवनिर्माण का सपना  सच होता दिखाई नहीं दे रहा है क्योंकि देश में बहुत ही कम लोग डिजिटल दुनिया से जुड़े हैं  और यह बहुत बड़ी कमी है जिसके कारण  देश के विकास की गति कम है|

भुवनेश कुमावत
बी.ए. प्रथम वर्ष
परिष्कार कॉलेज ऑफ ग्लोबल एक्सीलेंस, जयपुर

बुधवार, 20 सितंबर 2017

भारतीय राजनीति: कल और आज

भारतीय राजनीति की यात्रा काफी पुरानी हैं, जो अनेक उतार-चढ़ाव भरे रास्ते से गुजरते हुए वर्तमान तक पहुंची है। भारतीय राजनीति मनु, कौटिल्य, शुक्र से होते हुए वर्तमान तक पहुंची है, लेकिन मैंने इस लेख में आजादी के बाद की भारतीय राजनीति के परिदृश्य को लेखबद्ध करने का प्रयास किया है।
1947 के बाद भारतीय राजनीति में प्रारंभ के दशक में भारतीय समाज मे व्याप्त आर्थिक-सामाजिक विषमता को दूर करने के लिए प्रयास की राजनीति अहम थी। 1947 के बाद लगभग 17 वर्षों तक के कार्यकाल में पं. जवाहरलाल नेहरू ने भारत को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय हर स्तर पर ऊपर उठाने का प्रयास किया। साथ ही भारत को उस समय सशक्त और सुदृढ़ समाज की स्थापना करने की आवश्यकता थी, जिससे भारत आजादी से पूर्व लगभग 200 साल तक चले अंग्रेजों के शोषण से वापसी करने का प्रयास करें। 17 वर्षों के कार्यकाल में नेहरू द्वारा अनेक स्तर पर प्रयास किए गए।
उस समय भारतीय राजनीति की एक खास विशेषता यह थी कि ना तो उस वक्त मजबूत विपक्ष था और जो था तो वह भी समाज कल्याण के लिए सरकार के साथ या सरकार के खिलाफ जाने से जरा भी नहीं हिचकिचाता था। उस वक्त विपक्ष जनता के लिए था, वर्तमान की तरह विपक्ष केवल 'विपक्ष' नहीं था।
लगभग 17 साल के कार्यकाल में जहां नेहरू अपनी मृत्यु तक देश के प्रधानमंत्री बने रहे तो वह उनकी लोकप्रियता और साथ ही 1885 से कार्यरत कांग्रेस के के कार्यों का मधुर फल था। नेहरू ने इस दौरान जहां एक तरफ गुटनिरपेक्षता जैसी समयानुकूल सफल नीति का प्रतिपादन किया, पालन किया। वहीं दूसरी ओर उनके द्वारा चीन एवं पाकिस्तान के प्रति अपनाई गई विदेश नीति वर्तमान में कश्मीर एवं सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश आदि राज्यों से संबंधित सीमा विवादों की जड़ बनी, जो कि उनकी विदेश नीति की असफलता को दर्शाती है। विदेश नीति के संबंध में ऐसी ही लचरता भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने भी दिखाई।
1966 से भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का कार्यकाल प्रारंभ हुआ। उनके कार्यकाल में अनेक सशक्त एवं मजबूत फैसले लिए गए। परंतु इसी दौरान कांग्रेस में बिखराव शुरू हो गया और साथ ही साथ वक्त के साथ कांग्रेस दो धड़ों में बंट गई और इससे भारतीय राजनीति में राजनीतिक दलों की संख्या में इजाफा हुआ। 1971 के युद्ध के बाद भारतीय प्रधानमंत्री ने शिमला समझौते के समय गजब की दृढ़ता दिखाई। 1974 के परमाणु परीक्षण से भारत की शक्ति का पूरे विश्व को एहसास दिलाया। 1977 तक आते-आते भारत को आपातकाल से गुजरना पड़ा। इस आपातकाल का परिणाम यह हुआ कि 1980 तक 3 वर्ष में भारत को गठबंधन सरकार के बल पर 2 गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री(मोरारजी देसाई और चौधरी चरणसिंह) मिले। उस समय गठबंधन सरकारें भारतीय राजनीति के लिए एक प्रयोग के अतिरिक्त कुछ भी नही थी। इस अभिनव प्रयोग में सहज विश्वास की कमी थी। इसी का परिणाम यह हुआ कि दोनों सरकार ही अपना कार्यकाल पूरा नही कर सकी। परन्तु यह भारतीय राजनीति में इस बात का संकेत था कि अब कांग्रेस के विकल्प बनने की क्षमता अन्य दलों में भी हैं, हाँ इसमे थोड़ा वक्त लग सकता है लेकिन यह असंभव नहीं है।
1980 में पुनः एक बार इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई। 1984 में उनकी हत्या के साथ ही भारतीय राजनीति के एक युग का अंत हुआ। 1984 में इंदिरा गांधी के पुत्र राजीव गांधी भारत के प्रधानमंत्री बने। 1984 के आम चुनावों में भारी बहुमत के साथ राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने। लेकिन बोफोर्स घोटाले ने भारतीय राजनीति की जड़ों को हिला दिया, नतीजन 1989 के आम चुनावों के बाद कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा।
1989 से 1991 तक भारतीय राजनीति पुनः अस्थिरता के दौर से गुजरी। इन 2 वर्षों में भारत को पुनः 2 गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री (वी.पी. सिंह और चंद्रशेखर) मिले। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद जनसहानुभूति के बल पर पी.वी. नरसिंहराव के नेतृत्व में कांग्रेस की सत्ता में फिर से वापसी हुई। इस दौरान आर्थिक खुलेपन को भारत मे जगह दी गई, इसके अलावा 'लाइसेंस राज' की समाप्ति हुई। इसके साथ ही उथल-पुथल के दौर में मई 1996 से मार्च 1998 तक इन 22 महीनों में 3 गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों (क्रमशः अटल बिहारी वाजपेयी, एच.डी. देवगौड़ा और आई.के. गुजराल) की सरकार बनी, परंतु टिक नहीं सकी।
इसके बाद एक बार पुनः अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) सरकार सत्ता में आई। इस दौरान 1998 में पोकरण में 5 परमाणु परीक्षण किए गए। जिससे पूरे विश्व भर का ध्यान भारत की ओर आकर्षित हुआ। साथ ही विश्व की महाशक्तियों जिन में अमेरिका ने प्रमुख रुप से विरोध जताते हुए भारत पर कुछ प्रतिबंध लगाए। इसके अतिरिक्त भारत को कई देशों की आलोचना का शिकार होना पड़ा। 1999 में भारत को पाकिस्तान के साथ एक और युद्ध का सामना करना पड़ा। 1999 के कारगिल युद्ध में भारत में एक बार फिर से पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी। लेकिन इस युद्ध के परिणाम स्वरुप भारतीय राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयीजी को उनकी पाकिस्तान को लेकर विदेश नीति पर आलोचनाओ से मुखातिब होना पड़ा। साथ ही उन्हें पूरे विपक्ष के विरोध का सामना करना पड़ा और 13 महीने की सरकार चलाने के बाद पुनः चुनावों से सामना हुआ। लेकिन इन चुनावों में फिर से राजग सरकार की सत्ता में वापसी हुई और इस बार स्थिरता के साथ सरकार ने 5 वर्ष पूरे किये। अटल बिहारी वाजपेयीजी ने भारतीय राजनीति इतिहास में लगभग निर्विवाद रुप से सरकार का संचालन किया और इस बात का प्रमाण यह है कि आज भी भारतीय राजनीति में उनका स्थान अग्रणी हैं।

2004 में लोकसभा के चुनाव में संप्रग (संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन) सरकार का गठन हुआ। कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने स्वयं प्रधानमंत्री बनने के बजाए डॉ. मनमोहन सिंह को देश का प्रधानमंत्री बनाया। वास्तव में यह एक आश्चर्यजनक फैसला था, परंतु इसके पीछे गहन राजनीतिक सोच थी। डॉ. मनमोहन सिंह वास्तव में एक विद्वान अर्थशास्त्री थे, जिन्हें एक तरीके से प्रधानमंत्री पद से नवाजा गया था।अपने लगातार 2 कार्यकाल में से प्रथम कार्यकाल में अमेरिका के साथ परमाणु समझौता किया। 2008  मुम्बई पर आतंकी हमला हुआ, जिससे भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहानुभूति प्राप्त हुई और पाकिस्तान की हर मंच पर किरकिरी हुई। पाकिस्तान को लेकर विदेश नीति उनके कार्यकाल में भी कुछ अस्पष्ट ही रही। परन्तु इसके अलावा उनका प्रथम कार्यकाल ठीक ठाक रहा।
2009 में उनका दूसरा कार्यकाल शुरू हुआ। यह कार्यकाल उनकी छवि के लिए बेहद घातक सिद्ध हुआ। रामदेव के द्वारा कालेधन वापसी के लिए किया गया आंदोलन और उस दौरान सरकार द्वारा दमन के लिए उठाये गए कदम, अन्ना हजारे द्वारा किया गया लोकपाल आंदोलन, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला, 2G घोटाला और इसमें ए. राजा की गिरफ्तारी आदि सब ने भारतीय राजनीति और जनता दोनो को सोचने पर विवश कर दिया।
शायद भारतीय जनमानस को यह समझ आ गया था कि गठबंधन सरकारे देश के लिए घातक हो गई हैं और इसी के चलते भारतीय जनता ने राजनीति में एक भारी परिवर्तन करने की ठान ली। यह परिवर्तन अगले ही आम चुनावों में परिलक्षित हुआ।

2014 के चुनाव परिणामों ने भारतीय राजनीति में 1989 के बाद किसी एक राजनीतिक दल को एक बार पुनः स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ। शायद इसकी उम्मीद भारतीय जनता पार्टी को भी नही थी। खैर अकेले भाजपा ने 282 सीटों पर जीत दर्ज की और उसके सहयोगी दलों ने 54 सीटों पर जीत दर्ज की। इस प्रकार कुल 336 सीटों के साथ राजग सरकार बनी। इसका नेतृत्व किया नरेन्द्र मोदी ने। 26 मई, 2014 को शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों को आमंत्रित करने के साथ ही मोदी ने अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया। कूटनीतिक दृष्टिकोण से भी उनका शानदार कदम था। इसके बाद अपनी पहली विदेश यात्रा के भूटान जाना इस बात का संकेत था कि भारत के लिए एक छोटे से देश का भी उतना ही महत्व है जितना कि एक महाशक्ति का।
इसके बाद उन्होंने चीन, अमेरिका, जर्मनी, जापान, ब्रिटेन आदि सभी देशों के साथ मधुर संबंध स्थापित करने के प्रयास किया। यहाँ तक कि पाकिस्तान की अचानक यात्रा, इज़रायल यात्रा आदि सब से अपनी गहन विदेश नीति का संकेत दिया।
परंतु बारबार पाकिस्तान के आतंकी हमलों और चीनी घुसपैठ के बावजूद पाकिस्तान और चीनी के प्रति अपनाई जा रही नरमी ने विश्लेषकों को चिंता में डाल रखा है।
घरेलू राजनीति में स्वच्छ भारत अभियान, कौशल विकास योजना, मेक इन इंडिया, स्टार्टअप एंड स्टैंड अप योजना उनके सराहनीय प्रयास रहे है। परंतु नोटबन्दी की योजना की वास्तविक लाभ-हानि की गणित अब भी लोगों के लिए रहस्य बनी हुई हैं। क्योंकि वास्तव में यह जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लायी गयी उनको पूरा नही कर पाई, क्योंकि ना इस से सीमा पार से होने वाले घुसपैठ और आतंकी हमलों में कमी आयी, ना जाली नोटों की सप्लाई बंद हुई, ना भ्रष्टाचार में कमी आयी और ना ही गरीबों को कोई लाभ हुआ।
हाँ, इस से जो परिणाम सामने आए वो एक दम उलट रहे, जो निम्नलिखित है-
1. देश की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा और विकास दर नीचे गई, जो 2017-18 कि प्रथम तिमाही में 5.7% रही।
2. भारतीय रिज़र्व बैंक अब नोटबन्दी से प्राप्त नोटों की गिनती कर पाया।
3. देश के सभी छोटे-बड़े उद्योगों पर असर पड़ा, खासकर छोटे उद्यमी इस से परेशान हुए।
4. बैंक कर्मियों ने इसे अवसर के तौर पर देखा और नोटों को अवैध रूप से बदलकर भ्रष्टाचार को कम करने के बजाय इसको बढ़ा दिया।

कालेधन की वापसी की प्रक्रिया भी अब तक रेंग ही रही है। कहते है अगर आलोचनाओ पर गौर फरमाया जाए तो सुधार जल्दी आता है। मुझे हर सरकार की बस एक बात ही समझ नही आती की, वो हमेशा अपनी पूर्ववर्ती सरकार को क्यो कोसती रहती है। अगर हमारे देश की सरकार अपने से पूर्व की सरकार द्वारा की गई गलतियों का रोना रोने के बजाय सुधार करने पर ध्यान देती तो भारतीय राजनीति का आज स्थान ही कुछ अलग और ऊंचे स्तर पर होता। क्योंकि यह तो सहज कार्य है कि हम दूसरों के किये गए कार्य को गलत या सही ठहरा दे परन्तु महानता इसमे है कि गलत को सुधार उसे सही कैसे किया जाए। आज भारतीय राजनीति को इसी ध्येय पर कार्य करने की आवश्यकता है।

वर्तमान सरकार का ध्यान देश हित के बजाय धीरे धीरे चुनावों में विजय प्राप्ति तक सीमित होता जा रहा है। वर्तमान भारतीय राजनीति तुष्टिकरण की राजनीति बनती जा रही है। जिसके कई उदाहरण हमने हाल ही में हुए कुछ राज्यो के चुनावों में भी देखे है। अब आवश्यकता इस बात की है, कि तुष्टिकरण के बजाय देश हित मे काम किया जाए, पार्टी से ज्यादा देश को महत्व दिया जाए क्योकि जनमानस ने जनकल्याण के लिए एक दल को मौका दिया है, न कि दल की सर्वश्रेष्ठता का प्रदर्शन करने के लिए।

वही दूसरी तरफ देखा जाए तो वर्तमान भारतीय राजनीति को एक मजबूत विपक्ष की कमी भी खल रही हैं। लोकसभा में जहाँ विपक्ष के नाम पर कोई भी दल संवैधानिक दृष्टिकोण से योग्यता नही रखता है, परन्तु कांग्रेस और उसके सहयोगी दल विपक्ष में महज बैठने के अतिरिक्त कुछ नही कर पा रहे है, जिसकी कुछ वजह निम्नलिखित है-
1. इच्छाशक्ति का अभाव,
2. राजनीतिक विवशता (यथा- पूर्व में हुए घोटालों की विस्तृत जांच का भय)
3. निहित राजनीतिक स्वार्थ, जो सम्भवतः सभी कारणों में प्रबल कारण प्रतीत होता है।
4. दलीय हित को राष्ट्र हित से ज्यादा वरीयता देना।

उपरोक्त कुछ वजह है जिसके चलते आज 'विपक्ष केवल विपक्ष के लिए' की ही भूमिका तक सीमित रह गया है। क्योंकि अगर ऐसा नही होता तो वो सरकार के हर प्रस्ताव का विरोध नही करता, सिवाय एक प्रस्ताव को छोड़कर (सांसदों के वेतन-भत्तों में बढ़ोतरी) जिसे हर बार बिना बहस और ध्वनिमत के साथ पारित किया जाता है। ऐसी ही कुछ बाते विपक्ष के दोहरे चरित्र को दर्शाती है। ऐसा केवल कांग्रेस के साथ ही नही है, बल्कि सत्तारूढ़ भाजपा ऐसा व्यवहार काफी समय तक दर्शा चुकी है। इसके कुछ उदाहरण भी है, जैसे-
1. जिस GST बिल का विरोध भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए हमेशा किया, उसी बिल को एड़ी-चोटी का जोर लगा पारित करवा लिया।
2. जिस आधार कार्ड योजना का हमेशा विरोध किया उसको सत्ता में आने के बाद हर योजना के लिए अनिवार्य कर दिया।
3. उपरोक्त दोनों उदाहरण तो हो सकता है जनता की समझ से परे हो, परन्तु जिस पेट्रोल और सिलेंडर की मूल्य वृद्धि को लेकर भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए खूब सड़क प्रदर्शन किया था, आज वही भाजपा सत्ता में है तो इसी मूल्य वृद्धि पर मौन धारण किये हुए है।

राजनीतिक दलों का यह दोहरा चरित्र आज स्पष्टतः जगजाहिर है। इसलिए विपक्ष की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह राष्ट्रहित में कार्य करते हुए जनकल्याण के विधेयको में अपनी महत्ता सिद्ध करने के चक्कर के लिये अड़ंगा लगाने के बजाय सरकार का सहयोग करे और ईमानदारी पूर्वक सरकार के अनुचित कार्यों एवं नीतियों के प्रति जनता को सचेत करे।

अंत में इतना कहना चाहूंगा कि आज भारतीय राजनीति पतन की ओर बढ़ रही है और इस बात की महती आवश्यकता है कि इस देश का हर वर्ग चाहे वह युवा हो या वरिष्ठ, मध्यम हो या उच्च, सभी की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे किसी दल या व्यक्ति के अंधभक्त न बनकर विवेक का उपयोग करते हुए देश की बागडोर जिम्मेदार और उत्तम चरित्र वाले व्यक्ति को सौंपे।
जय हिंद, जय भारत

सोनू सोनी

मंगलवार, 12 सितंबर 2017

अनुच्छेद 370 क्या हैं ?

अनुच्छेद 370 क्या है ?    
                                               
जम्मू कश्मीर के नागरिकों के पास दोहरी नागरिकता होती है जम्मू कश्मीर का राष्ट्रीय ध्वज अलग होता है ।
जम्मू कश्मीर की विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्ष एवं अन्य राज्यों के विधानसभा का कार्यकाल 5 वर्ष होता है।
जम्मू कश्मीर में राष्ट्रध्वज एवं राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान अपराध नहीं है।
भारत के उच्चतम न्यायालय के आदेश जम्मू कश्मीर के अंदर मान्य नहीं होते हैं।
भारत की संसद जम्मू कश्मीर के संबंध में अत्यंत सीमित क्षेत्र में कानून बना सकती है।
जम्मू कश्मीर की कोई भी महिला यदि भारत के किसी अन्य राज्य के व्यक्ति से शादी कर ले तो उसकी नागरिकता समाप्त हो जाएगी इसके विपरीत यदि वह महिला पाकिस्तान के व्यक्ति से शादी कर ले तो उसे भारत की नागरिकता मिल जाती है।
जम्मू कश्मीर में RTI , RTE  और CAG लागू नहीं होता है।
कश्मीर में महिलाओं पर शरिया कानून लागू होता है।
कश्मीर में पंचायत के अधिकार नहीं है।
कश्मीर में चपरासी को 2500 रुपए ही मिलते हैं।
कश्मीर में अल्पसंख्यकों को 16 प्रतिशत आरक्षण नहीं मिलता है।
धारा 370 की वजह से कश्मीर में बाहर के लोग जमीन नहीं खरीद सकते हैं।
धारा 370 की वजह से पाकिस्तानियों को भी भारतीय नागरिकता मिल जाती है, इसके लिए पाकिस्तानियों को केवल किसी कश्मीर की लड़की से शादी करनी पड़ती है।।   

     अनुच्छेद 370 पर मेरे अपने विचार :-
अनुच्छेद 370 उस वक्त प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सबसे बड़ी भूल थी और उन्होंने किसी की नहीं सुनी धारा को लागू कर दिया  । धारा 370 एवं अनुच्छेद 35 से कश्मीर के लोगों को मेरे विचार से कोई लाभ प्राप्त नहीं होता है| जब इसके हटाने की बात आती है तो  वहां के नेता एवं अलगाववादी नेताओं के कान खड़े हो जाते हैं, क्योंकि सबसे ज्यादा लाभ इस तरह से नेताओं को ही होता है और उन्हें यह डर सताता है कि कहीं हमारी सुरक्षा सरकार द्वारा दिए गए लाभ हट नहीं जाए | भारत का कोई कानून कश्मीर में लागू नहीं हो सकता है इससे कश्मीर का विकास नहीं हो पाता है|  जवाहरलाल नेहरु ने कहा था कि यह धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा बल्कि उनका मत गलत साबित हो गया|  मैं एक भारत का आम नागरिक होने के कारण मैं इस बात का समर्थक हूं कि धारा 370 हटनी चाहिए| अन्यथा कश्मीर कभी भी विकास के पथ पर नहीं चल पाएगा और आने वाले दिनों में कहीं यह हमारे हाथों में से  चला न जाए| इसे एक विशेष दर्जा होने से देश में विभाजन की स्थिति फैल रही है|  इसी कारण कर्नाटक राज्य ने अपने अलग झंडे की मांग की ओर वह अच्छा हुआ कि खारिज हो गई|  कश्मीर में भारत के अन्य राज्यों के लोग वहां जाकर नहीं रह सकते हैं और नेहरु जी  अंतर्राष्ट्रीय नेता बनने के चक्कर में कश्मीर समस्या का अंत राष्ट्रीयकरण कर दिया|

जसवंतसिंह
बी.ए. प्रथम वर्ष
परिष्कार कॉलेज ऑफ ग्लोबल एक्सीलेंस
जयपुर (  राज. )

सोमवार, 4 सितंबर 2017

"नेहरू बहादुर" और चीन


1947-49 में जब आज़ाद हिंदुस्तान का संविधान बनाया जा रहा था, तभी चीन में 1949 की क्रांति हो गई और हुक़ूमत को माओत्से तुंग की "पीपुल्स रिवोल्यूशन" ने उखाड़ फेंका।

नेहरू हमेशा से चीन से बेहतर ताल्लुक़ चाहते थे और च्यांग काई शेक से उनकी अच्छी पटरी बैठती थी, लेकिन इस माओत्से तुंग का क्या करें! कौन है यह माओत्से तुंग और कैसा है इसका मिजाज़, यह जानना नेहरू के लिए ज़रूरी था। लिहाज़ा, उन्होंने अपने राजदूत को माओ से मिलने भेजा।

ये राजदूत वास्तव में एक इतिहासकार थे। प्रख्यात इतिहासविद् केएम पणिक्कर। वे इस भावना के साथ माओ से मिलने पहुंचे कि प्रधानमंत्री चीन के साथ अच्छे रिश्ते बरक़रार रखने के लिए बेताब हैं। लिहाज़ा, उन्होंने माओ से मिलने के बाद जो रिपोर्ट नेहरू को सौंपी, वो कुछ इस तरह से थी :

"मिस्टर चेयरमैन का चेहरा बहुत कृपालु है और उनकी आंखों से तो जैसे उदारता टपकती है। उनके हावभाव कोमलतापूर्ण हैं। उनका नज़रिया फ़िलॉस्फ़रों वाला है और उनकी छोटी-छोटी आंखें स्वप्न‍िल-सी जान पड़ती हैं। चीन का यह लीडर जाने कितने संघर्षों में तपकर यहां तक पहुंचा है, फिर भी उनके भीतर किसी तरह का रूखापन नहीं है। प्रधानमंत्री महोदय, मुझे तो उनको देखकर आपकी याद आई! वे भी आप ही की तरह गहरे अर्थों में "मानवतावादी" हैं!"

मनुष्यता के इतिहास के सबसे दुर्दान्त तानाशाहों में से एक माओत्से तुंग के बारे में यह निहायत ही हास्यास्पद और झूठी रिपोर्ट पणिक्कर महोदय द्वारा नेहरू बहादुर को सौंपी जा रही थी!

नेहरू बहादुर मुतमईन हो गए!

महज़ एक साल बाद चीन ने तिब्बत पर चढ़ाई कर दी और उस पर बलात कब्ज़ा कर लिया।

तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल के ग़ुस्से का कोई ठिकाना नहीं था और उन्होंने प्रधानमंत्री को जाकर बताया कि चीन ने आपके राजदूत को बहुत अच्छी तरह से मूर्ख बनाया है। उन्होंने यह भी कहा कि चीन अब पहले से ज़्यादा मज़बूत हो गया है और उससे सावधान रहने की ज़रूरत है। नेहरू ने पटेल को पत्र लिखा और कहा, "तिब्बत के साथ चीन ने जो किया, वह ग़लत था, लेकिन हमें डरने की ज़रूरत नहीं। आख़िर हिमालय पर्वत स्वयं हमारी रक्षा कर रहा है। चीन कहां हिमालय की वादियों में भटकने के लिए आएगा!"

यह अक्तूबर 1950 की बात है। दिसंबर आते-आते सरदार पटेल चल बसे। अब नेहरू को मनमानी करने से रोकने वाला कोई नहीं था।

भारत और चीन की मीलों लंबी सीमाएं अभी तक अनिर्धारित थीं और किसी भी समय टकराव का कारण बन सकती थीं, ख़ासतौर पर चीन के मिजाज़ को देखते हुए। 1952 की गर्मियों में भारत सरकार का एक प्रतिनिधिमंडल बीजिंग पहुंचा। प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कौन कर रहा था? प्रधानमंत्री नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित!

अब विजयलक्ष्मी पंडित ने नेहरू को चिट्ठी लिखकर माओ के गुण गाए। उन्होंने कहा, "मिस्टर चेयरमैन का हास्यबोध कमाल का है और उनकी लोकप्रियता देखकर तो मुझे महात्मा गांधी की याद आई!" उन्होंने चाऊ एन लाई की भी तारीफ़ों के पुल बांधे।

नेहरू बहादुर फिर मुतमईन हुए!

1954 में भारत ने अधिकृत रूप से मान लिया कि तिब्बत चीन का हिस्सा है और चीन के सा‍थ "पंचशील" समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए।

लेकिन नेहरू के आत्मघाती तरक़श में केएम पणिक्कर और विजयलक्ष्मी पंडित ही नहीं थे। नेहरू के तरक़श में वी कृष्णा मेनन भी थे। भारत के रक्षामंत्री, जिनका अंतरराष्ट्रीय समुदाय में ख़ूब मज़ाक़ उड़ाया जाता था और जो एक बार "टाइम" मैग्ज़ीन के कवर पर संपेरे के रूप में भी चित्र‍ित किए जा चुके थे। भारत में भी उन्हें कोई पसंद नहीं करता था। लेकिन, जैसा कि स्वीडन के तत्कालीन राजदूत अल्वा मिर्डल ने चुटकी लेते हुए कहा था, "वीके कृष्णा मेनन केवल इसीलिए प्रधानमंत्री नेहरू के चहेते थे, क्योंकि एक वे ही थे, जिनसे प्रधानमंत्री कार्ल मार्क्स और चार्ल्स डिकेंस के बारे में बतिया सकते थे!"

रामचंद्र गुहा ने आधुनिक भारत का जो इतिहास लिखा है, उसमें उन्होंने तफ़सील से बताया है कि तब "साउथ ब्लॉक" में एक सर गिरिजा शंकर वाजपेयी हुआ करते थे, जो प्रधानमंत्री को लगातार आगाह करते रहे कि चीन से चौकस रहने की ज़रूरत है, लेकिन प्रधानमंत्री को लगता था कि सब ठीक है। वो "हिंदी चीनी भाई भाई" के नारे बुलंद करने के दिन थे।

1956 में चीन ने "अक्साई चीन" में सड़कें बनवाना शुरू कर दीं, नेहरू के कान पर जूं नहीं रेंगी। भारत-चीन के बीच जो "मैकमोहन" रेखा थी, उसे अंग्रेज़ इसलिए खींच गए थे ताकि असम के बाग़ानों को चीन ना हड़प ले, लेकिन "अक्साई चीन" को लेकर वैसी कोई सतर्कता भारत ने नहीं दिखाई। 1958 में चीन ने अपना जो नक़्शा जारी किया, उसमें "अक्साई चीन" में जहां-जहां उसने सड़कें बनवाई थीं, उस हिस्से को अपना बता दिया। 1959 में भारत ने दलाई लामा को अपने यहां शरण दी तो माओत्से तुंग ग़ुस्से से तमतमा उठा और उसने भारत की हरकतों पर कड़ी निगरानी रखने का हुक्म दे दिया।

1960 में चीनी प्रीमियर चाऊ एन लाई हिंदुस्तान आए और नेहरू से ऐसे गर्मजोशी से मिले, जैसे कोई बात ही ना हो। आज इंटरनेट पर चाऊ की यात्रा के फ़ुटेज उपलब्ध हैं, जिनमें हम इस यात्रा के विरोध में प्रदर्शन करने वालों को हाथों में यह तख़्‍ति‍यां लिए देख सकते हैं कि "चीन से ख़बरदार!" ऐसा लग रहा था कि जो बात अवाम को मालूम थी, उससे मुल्क के वज़ीरे-आज़म ही बेख़बर थे!

1961 में भारत की फ़ौज ने कुछ इस अंदाज़ में "फ़ॉरवर्ड पॉलिसी" अपनाई, मानो रक्षामंत्री मेनन को हालात की संजीदगी का रत्तीभर भी अंदाज़ा ना हो। लगभग ख़ुशफ़हमी के आलम में "मैकमोहन रेखा" पार कर चीनी क्षेत्र में भारत ने 43 चौकियां तैनात कर दीं। चीन तो जैसे मौक़े की ही तलाश में था। उसने इसे उकसावे की नीति माना और हिंदुस्तान पर ज़ोरदार हमला बोला। नेहरू बहादुर हक्के बक्के रह गए। "हिंदी चीनी भाई भाई" के शगूफ़े की हवा निकल गई। पंचशील "पंक्चर" हो गया। भारत को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। चीन ने अक्साई चीन में अपना झंडा गाड़ दिया।

कहते हैं 1962 के इस सदमे से नेहरू आख़िर तक उबर नहीं पाए थे।

पणिक्कर, विजयलक्ष्मी पंडित और वी कृष्णा मेनन : नेहरू की चीन नीति के ये तीन पिटे हुए मोहरे थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री को चीन के बारे में भ्रामक सूचनाएं दीं, क्योंकि प्रधानमंत्री हक़ीक़त सुनने के लिए तैयार नहीं थे। और जो लोग उन्हें हक़ीक़त बताना चाहते थे, उनकी अनसुनी की जा रही थी।

नेहरू बहादुर की पोलिटिकल, कल्चरल और डिप्लोमैटिक लेगसी में जितने भी छेद हैं, यह उनकी एक तस्वीर है। ऐसे ही छेद कश्मीर, पाकिस्तान, सुरक्षा परिषद, कॉमन सिविल कोड, महालनोबिस मॉडल, फ़ेबियन समाजवाद, पंचशील, गुटनिरपेक्षता, रूस से दोस्ती और अमरीका से दूरी, आदि अनेक मामलों से संबंधित नेहरू नीतियों में आपको मिलेंगे।

मेरा स्पष्ट मत है कि नेहरू बहादुर को हिंदुस्तान की पहली हुक़ूमत में "एचआरडी मिनिस्टर" होना चाहिए था। उनका इतिहासबोध आला दर्जे का था, लेकिन वर्तमान पर नज़र उतनी ही कमज़ोर। हुक़ूमत चलाना उनके बूते का रोग नहीं था। और हिंदुस्तान की पहली हुक़ूमत में जो जनाब "एचआरडी मिनिस्टर" थे, उन्हें होना चाहिए था अल्पसंख्यक मामलों का मंत्री, ताकि स्कूली किताबों में "अकबर क्यों महान था" और "हिंदू धर्म की पांच बुराइयां बताइए", ऐसी चीज़ें नहीं पढ़ाई जातीं। और देश का प्रधानमंत्री आप राजगोपालाचारी या वल्लभभाई पटेल में से किसी एक को चुन सकते थे। राजाजी इसलिए कि उनकी नज़र बहुत "मार्केट फ्रेंडली" थी और "लाइसेंस राज" की जो समाजवादी विरासत नेहरू बहादुर चालीस सालों के लिए अपने पीछे छोड़ गए, उससे वे बहुत शुरुआत में ही मुक्त‍ि दिला सकते थे। और सरदार पटेल इसलिए कि हर लिहाज़ से वे नेहरू की तुलना में बेहतर प्रशासक थे!

ये तमाम बातें मौजूदा हालात में फिर याद हो आईं। चीन के साथ फिर से सीमाओं पर तनाव है और किसी भी तरह की ख़ुशफ़हमी नुक़सानदेह है। चीन आपसे गर्मजोशी से हाथ मिलाने के फ़ौरन बाद आप पर हमला बोल सकता है, ये उसकी फ़ितरत रही है। इतिहास गवाह है और वो इतिहासबोध किस काम का, जिससे हम सबक़ नहीं ले।

डॉ. नीता शर्मा
परिष्कार कॉलेज, जयपुर