रविवार, 18 दिसंबर 2016

जम्मू कश्मीर एवं भारत

भारत का इतिहास एक शांतिप्रिय देश के रूप में रहा है। लेकिन जब हम बात जम्मू कश्मीर पर करते हैं, जिसे भारत का दिल, स्वर्ग, सिरताज आदि नामों से संबोधित किया जाता है। आजादी से पहले जम्मू कश्मीर भी एक रियासत थी, लेकिन इसके ऊपर अंग्रेजों का सीधा नियंत्रण नहीं था। जब देश का विभाजन 14-15 अगस्त 1947 में हुआ तो इसके तत्कालीन राजा हरि सिंह ने यह घोषणा कि वह ना तो भारत में शामिल होंगे और ना ही पाकिस्तान में। परंतु 1948 में पाक ने कबाइलियों के माध्यम से जम्मू कश्मीर पर आक्रमण किया, उस समय राजा हरिसिंह ने भारत की सरकार से आर्थिक सहायता मांगी तो हिंदुस्तान ने उसकी मदद की, तो हरी सिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिया। परंतु वर्तमान में कुछ क्षेत्र पाकिस्तान के पास तथा कुछ भाग चीन के पास है। वैश्विक दृष्टि से यह एक ज्वलंत समस्या बन गई है, इसके समाधान के लिए निम्न बिंदु दिए जा सकते हैं:-

i. प्रत्येक गांव के लिए अलग से स्कूल होना चाहिए ताकि प्रत्येक बच्चे को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा मिले।
ii. स्थानीय संसाधनों का समुचित विकास करना चाहिए जिससे लोगों का अपने सरकार के प्रति विश्वास उत्पन्न हो।
iii. प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार उपलब्ध करवाना क्योकि बेरोजगार व्यक्ति राज्य के विरुद्ध क्रांति के बारे में विचार करता है।
iv. धीरे धीरे परिवर्तन की लहर को पूरे राज्य में प्रसारित करने क्योकि यहाँ के अलगाववादी संगठन परिवर्तन का पुरजोर विरोध करते हैं।
v. जम्मू कश्मीर की प्रत्येक महिला को पूर्ण शिक्षित करने की जिम्मेदारी सरकार की होनी चाहिए क्योंकि एक महिला एक परिवार को शिक्षित करती है।
vi. जम्मू कश्मीर के लोगों में राष्ट्रवाद की भावना का संचार करना होगा क्योंकि ये लोग आज भी अपने आप को मन से भारतीय नहीं मानते हैं।

अतः हम इस प्रकार कह सकते है जम्मू कश्मीर की समस्या एक जन समस्या बन गई है। जिसका समाधान बातचीत एवं स्थानीय विकासात्मक योजनाओं से किया जा सकता है। इसके लिए दोनों पक्षों के द्वारा एक दूसरे के नियमों का पालन करना एवं छद्म युद्ध को रोकना आवश्यक है क्योंकि इसके द्वारा दोनों देशों में तनाव उत्पन्न होता है।

सरिता वर्मा
B.A. Final
परिष्कार कॉलेज

मुद्रा का नवीनीकरण

वर्तमान में कार्यरत एनडीए सरकार ने 8-9 अक्टूबर, 2016 की मध्यरात्रि को नोटबंदी का फैसला दिया। इसके अंतर्गत संपूर्ण देश में 500 एवं 1000 के नोटों को बंद करने का फैसला एवं नए नोटों का भारतीय अर्थव्यवस्था में चलन की घोषणा की गई।
इस फैसले ने संपूर्ण देशवासियों को अचंभित कर दिया लेकिन यह फैसला क्यों लिया गया एवं कितना कारगर साबित होगा इस विषय में हम थोड़ी चर्चा करते हैं।

*ये विराट फैसला क्यों लिया गया?
कालाधन इस फैसले का केंद्रीय बिंदु है।

कालाधन Black money is not black money it is a result of black activities.
जनता द्वारा सरकार को स्वार्थवश नहीं चुकाया जाने वाला "कर" ही काला धन है।

अब तक मुद्रा नवीनीकरण का फ़ैसला
1946 में रियासतों में चलने वाली मुद्रा का एकीकरण।
1978 में मोरारजी देसाई की सरकार द्वारा 5000 एवं 10000 की नोट बंदी।
2016 में 1000 एवं 500 के नोटों की बंदी।

यहां हम काले धन को एक उदाहरण से समझते हैं-
माना वस्तु की उत्पादन लागत 100 रुपए हैं और अप्रत्यक्ष कर लगने के बाद उसकी कीमत 135 है, इस प्रकार 135 रुपए में 35 रुपए कर के रूप में है जो कि 135 रुपए का 26 प्रतिशत होता है।
सरकार को अप्रत्यक्ष कर के रूप में 26 प्रतिशत मिलना चाहिए परन्तु जीडीपी में अप्रत्यक्ष कर का भाग मात्र 11.4% प्राप्त होता है। अतः बचा हुआ 14.7% ही कालाधन है। भारत की जीडीपी लगभग 2 ट्रिलियन डॉलर की है।
Note:- यदि हमारे जीडीपी का लगभग 15% प्रतिवर्ष कालाधन होता है तो 6 वर्षों में काला धन लगभग 1 वर्ष की हमारी जीडीपी के बराबर हो जाएगा।

अतः इस स्थिति को ध्यान में रखकर प्रधानमंत्री ने यह फैसला लिया, जिसके अंतर्गत भारत मुद्रा के 86 प्रतिशत हिस्सेदारी वाले 1000 एवं 500 के नोटों का नवीनीकरण किया गया।

आइए अब हम जानते हैं कि इस फैसले का हमारे ऊपर क्या असर पड़ेगा-
1. आर्थिक प्रभाव- इस फैसले से आर्थिक प्रभाव के दो पक्ष सामने है-
प्रथम दीर्घकालिक एवं सकारात्मक
i. आधारभूत ढांचे का विकास:- इसके अंतर्गत आधारभूत सुविधाएं परिवहन, शिक्षा, स्वास्थ्य इत्यादि का विकास किया जाएगा। जिस के निम्न परिणाम होंगे-
भारत में आधारभूत सुविधाओं का विकास जिससे रोजगार में वृद्धि, रोजगार में वृद्धि से क्रय शक्ति में वृद्धि, क्रय शक्ति में वृद्धि से गरीबी में कमी आएगी।
Note:- वर्तमान में कार्यरत सरकार का लक्ष्य है कि वह 10 लाख नौकरियां प्रतिमाह उपलब्ध करवाएगी जो आधारभूत विकास से ही संभव है।

ii. कर में कमी:- हमारे देश में जीडीपी में अप्रत्यक्ष कर का 26 प्रतिशत सरकार को मिलना चाहिए लेकिन इसका मात्र 11.4 प्रतिशत ही सरकार को प्राप्त होता है जिसका कारण काला धन है। अतः काले धन को समाप्त होने से सरकार को अप्रत्यक्ष कर का 26 प्रतिशत मिलेगा। जिससे स्वतः ही सरकार जन सुविधाओं को ध्यान में रखकर कर की दरों में कमी करेगी।

iii. कर्ज की ब्याज दरों में कमी:- इस योजना के कारण अप्रत्यक्ष रुप से बैंकों के एनपीए में कमी आएगी तथा बैंकों के पास जनता द्वारा जमाएं अधिक मात्रा में करवाने के कारण बैंकों के पास ऋण देने के लिए अधिक धन होगा। जिसके कारण वह अपनी ब्याज दर घटायेगा। जिसका एक प्रभाव निवेश में वृद्धि के रूप में होगा, जो आगे चलकर रोजगार के साथ आर्थिक विकास को बढ़ाएगा।

iv. तकनीकी विकास:- नोट बंद के कारण भारत में प्लास्टिक मनी बढ़ेगी जिसके फलस्वरुप स्वत: ही भारत में इंटरनेट की बढ़ोतरी होगी और इंटरनेट के विस्तार से तकनीक का स्वत: ही विकास हो जाएगा।

v. कर प्रणाली का व्यवस्थित रूप:- अधिकांश लोगों द्वारा कर चोरी की जाती रही है। सरकार के इस सशक्त कदम के बाद अधिकांशत: कर चोरी की समस्या खत्म हो जाएगी एवं कम कर से प्रत्येक व्यक्ति संतुष्ट रहेगा एवं समय पर कर चुकाएगा।

द्वितीय अल्पकालीन एवं नकारात्मक प्रभाव:-

i. मुद्रा के चलन में कमी:- नए नोटों को जनता अपने पास द्रव रूप में रखना चाहती है, जिससे धन प्रवाह में कमी हुई है और यह समस्या लगभग जनवरी-फरवरी 2017 तक भारतीय अर्थव्यवस्था में बने रहने की संभावना है।

ii. विकास दर में कमी:- लोगों के पास नई मुद्रा कम होने के कारण क्रय शक्ति में कमी हुई है। जिससे वृद्धि दर में अनुमानित 0.5 से 1% की कमी रहेगी।

2. रक्षात्मक प्रभाव

i. कश्मीर शांति:- नोट बंदी के फलस्वरूप अलगाववादियों द्वारा नवयुवकों को रुपयों का लालच देकर जो हिंसात्मक गतिविधियां करवाई जा रही थी उसमें कमी आई है।

ii. नकली नोटों की छपाई पर पूर्णतया रोक:- आरबीआई द्वारा 1000 एवं 500 का कागज USA से लाया जा रहा था, जो अनुमान के अनुसार USA द्वारा पाकिस्तान एवं बांग्लादेश को भी उपलब्ध करवाया जा रहा है। जिससे नकली नोटों की छपाई एवं आतंकवादी गतिविधि में बढ़ोतरी हो रही थी।
वर्तमान में प्रचलित 500 एवं 2000 के नोटों का कागज जर्मनी से मंगवाया जा रहा है, जिससे कि नकली नोटों के छपने पर पूर्णतया रोक लगेगी।

3. वैश्विक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव:- अंतर्राष्ट्रीय व्यापार रुपयों में ना होकर डॉलर में होता है, अतः मुद्रा परिवर्तन से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा। अतः सकारात्मक प्रभाव की बात करें तो...
कर में कमी >अधिक आय> निवेश में वृद्धि> उत्पादन में वृद्धि> निर्यात में वृद्धि> विदेशी मुद्रा का अधिक अर्जन ।

मूल्यांकन:- किसी भी सरकार के द्वारा उठाया गया कदम तत्कालीन परिस्थितियों की देन होती है और प्रत्येक सरकार का उद्देश्य राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखना होता है। अतः हमें दो पार्टियों की तुलना नकारात्मक रूप में न करते हुए अपने देश हित में लिए गए सकारात्मक निर्णय का समर्थन करना चाहिए। हमें किसी पार्टी के समर्थन एवं विरोध में नहीं पड़कर इस फैसले पर अपने विवेकानुसार निर्णय लेने की क्षमता रखनी चाहिए। सरकार की कुछ कदम भविष्य उन्मुखी होते हैं, जिनका परिणाम भविष्य में ही दिखाई देता है। हालांकि नोट बंदी के कारण सामान्य जनता को कुछ समय के लिए परेशानी वाजिब है, पर एक स्वच्छ, भ्रष्टाचार मुक्त एवं सुनहरे भारत के लिए यह कदम अपरिहार्य है।

अंजलि वर्मा
नरेश आमेटा
(B.A. Final Year)
परिष्कार कॉलेज

शनिवार, 17 दिसंबर 2016

Girl's Education in India

It is rightly stated that “Educating a boy is educating a person but Educating a girl is educating a nation”. Some of the major barriers which stand for girls education are as follows-
1. Lack of consciousness amongst the female members to be educated.
2. Lack of safe transportation for girls to go to school.
3. Financial constraints in the family.
4. Conservative mentality.
5. The task of performing domestic duties at home such as cleaning, washing, etc.
6. The lack of women teachers in primary and middle schools has been a major factor for low enrolment of girls.
7. Unwillingness of many parents to send their daughter to mixed schools.
8. Early Marriage age in many states acts as an obstacle.

Some of the major initiatives for promotion of girl's education include Beti Bachao, Beti Padhao; Kasturba Gandhi Balika Vidyalayas (KGBV); Sarva Siksha Abhiyan. Further, the following suggestions you may write in your answers:
Serious efforts must be made by the government in collaboration with civil society wherein awareness must be created amongst the parents for promoting girls education. Use of media in portraying a positive image of women.
Financial assistance to poverty stricken families. Counselling of parents and children from unprivileged families.

Yogesh jangid
M.A. Previous, Political Science

ट्रिपल तलाक

देश भर में छिड़ी तीन तलाक़ पर बहस के दौरान हाल में ही इलाहबाद हाईकार्ट ने ट्रिपल तलाक़ को असंवैधानिक बताते हुए, इसे मुस्लिम महिलाओं के प्रति क्रूरता बतलाया है।
तलाक़ को लेकर कुरान में स्पष्ट व्याख्या है कि इस्लाम में निकाह एक अनुबंध है एवं निकाह और तलाक़ दोनों ही गवाहों के समक्ष होने चाहिए। तलाक़ प्रक्रिया के लिए महिला का तीन मासिक धर्म से गुजरना जरूरी है अर्थात दूसरा और तीसरा तलाक़ देने में तीन तीन माह का अंतराल होना चाहिए। एक बार में तीन बार तलाक़ बोल देने से उसे एक ही बार माना जाता है। ऐसा इसीलिए है, ताकि वह महिला पति के निर्णय पर पुनः विचार की प्रतीक्षा कर सके। ख़ास बात यह है कि इस अवधि में महिला घर छोड़कर नहीं जायेगी।

मुझे खुशी है कि इलाहाबाद हाईकार्ट ने मुस्लिम महिलाओं की इस पीड़ा को समझा है और तीन तलाक़ को क्रूरता की संज्ञा दी है एवं साथ ही यह टिप्पणी की है कि कोई भी पर्सनल लॉ संविधान से ऊपर नहीं है।
वास्तव में ट्रिपल तलाक़ जैसे पर्सनल लॉ देश की एकता में बाधक हैं। मैं हाई कौर्ट के इस फैसले का स्वागत करता हूँ। मेरी राय में मुस्लिम महिलाओं को उनका हक दिलाने के लिए मुस्लिम मैरिज एक्ट  बनाया जाए, इसमें निकाह से लेकर तलाक़ तक के प्रावधान हों एवं उल्लंघन होने पर सजा के प्रावधान हों एवं जो लोग शरीयत का हवाला देते हुए ट्रिपल तलाक़ को जायज ठहराते हैं, उन्है यह पता होना चाहिए कि कोई भी शरीयत संविधान से ऊपर नहीं है।
मेरे मत में यदि कोई व्यक्ति दूसरी या तीसरी शादी करता है तो उसे काजी व पहली पत्नी की अनुमति लेनी चाहिए।
हैरानी की बात तो यह है कि हम अपने व्यक्तिगत स्वार्थो व सामाजिक अन्धविश्वाशों में इतना डूब चुके हैं कि माननीया न्यायपालिका द्वारा हमें समय समय पर अपने सवैधानिक मूल्यों के प्रति सावचेत कराया जाता है। चाहे वह राष्ट्रगान हो या ट्रिपल तलाक़।

द्योजीराम फौजदार
M.A. Final, Political Science

विवेकानंद जी

"विभिन्न कालखंडों में  समय की  आवश्यकतानुरूप यथार्थ में आदर्श का उदाहरण प्रस्तुत कर न केवल तात्कालीन वर्त्तमान की पीड़ा का निवारण कर उनका मार्गदर्शन करने  बल्कि युगों युगों तक भविष्य को प्रेरित करने की विशिष्ट प्रतिभा भारत की प्रवृति रही है। जिसका साक्षी समय और जिससे विस्मित विश्व होता आया है। ऐसे में आज अगर भारत  का वर्त्तमान  परिस्थितियों की पीड़ा झेलने को बाध्य है तो मैं इसे परिवर्तन की प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में देखता हूँ। नए को जन्म देना  निश्चित रूप से कष्टमय  होता है।          

विवेकानंद और नरेंद्र के बीच बुद्धि और ज्ञान का अंतर था, ऐसे में सामाजिक व्यवस्था की आवश्यकता के सन्दर्भ में  विवेकानद  की पूर्ती की अपेक्षा नरेंद्र के विकल्प से संभव ही नहीं, पर जब नरेंद्र और विवेकानंद के बीच का अंतर ही भारत को स्पष्ट न हो तो उसकी पीड़ा स्वाभाविक है।

आध्यात्म की दृष्टि से राष्ट्रीय जीवन में नयी ऊर्जा का संचार कर भारतीयों का भारत से परिचय करना ही स्वामी विवेकानंद जी के अल्पायु की विशिष्ट उपलब्धि रही है, फिर बात चाहे आदि शकराचार्य की करें या विवेकानंद की, अगर समय के गर्भ से उत्पन्न युवा  संभावनाओं ने समय समय में इस देश को नयी दिशा दी  है तो आखिर क्या कारण है जो आज हम ऐसे किसी भी नए सम्भावना से स्वयं को प्रतिरक्षित कर रखे हैं?        

जब उद्देश्य स्पष्ट हो, समस्याओं का बोध भी ..तो संवेदनाएं आवश्यकताओं  को महसूस  कर स्वयं अपने प्रयास से नए की सम्भावना बना लेती हैं। पर जब शासन तंत्र का उद्देश्य भ्रमित हो, समस्याओं की समझ सीमित और समाज को व्यवहारिकता की समझदारी ने संवेदनहीन बना दिया हो तो स्वाभाविक है कि परिस्थितियों  का परिवर्तन  भी समस्या बन जाता है।

एक राष्ट्र के रूप में हम अपने लिए कैसी व्यवस्था चाहते हैं ये इतना कठिन प्रश्न भी नहीं अगर स्वार्थ ने हमारे समझ के माध्यम से हमें छोटा न कर दिया हो तो। हाँ, अगर हमारी कल्पनाशक्ति की कुंठा ही हमारी संभावनाओं को सीमित कर दे और क्या होना चाहिए हमें इसका भी बोध न हो तो जो भी हो रहा है हम उसी से संतुष्ट होना भी सीख जाएंगे।
                                    
आर्थिक  प्रगति  को सामाजिक विकास का पर्याय मान लेना हमारी समझ की भूल है, जिसे  हमें स्वीकार कर सुधारना होगा। इसके लिए सर्वप्रथम हमें स्वयं की परिधि का विस्तार कर अपनत्व के आधार पर 'अपने' का निर्धारण करना होगा, तभी हम समाज के पीड़ित, शोषित और दीन- हीन एवं निर्बल वर्गों की संवेदनाओं और आवश्यकताओं को महसूस कर सकेंगे।

हमें एक निर्भीक, धर्मनिष्ठ, सत्य निष्ठ, कर्तव्यपरायण, स्वावलंबी एवं आदर्श समाज की स्थापना करने का प्रयास करना है और यह तभी संभव है जब हम अपने प्रयास की दिशा को अपने उद्देश्य के अनुरूप रखें। प्रयास की दिशा ही जब  उद्देश्य का खंडन और उसके महत्व को निरर्थक सिद्ध करे तो इसका तात्पर्य यही है की हमने जीवन की सहूलियतों के लिए समय द्वारा प्रस्तुत आवश्यक संघर्ष से मुह फेर लिया है। ऐसे में, परिणाम केवल प्रयास की व्यर्थता ही सिद्ध करेगा। इस दृष्टि से किसी भी राष्ट्र की नियति के सन्दर्भ में उसके नेतृत्व की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

राष्ट्र का नेतृत्व एक महत्वपूर्ण दायित्व है जिसके लिए पात्र का निर्धारण कृत्रिम लोकप्रियता के आधार पर नहीं बल्कि समय की आवश्यकता और पात्र  की योग्यता के  आधार पर होना चाहिए।

ऐसे में, अगर कोई राष्ट्र राजनीति  के प्रभाव में  अपने सचेतन निर्णय से किसी  अयोग्य को अपने नेतृत्व का दायित्व सौंप दे तो उसका निर्णय ही उसकी मानसिकता पर प्रश्नचिन्ह और उसके व्यवहार की भ्रष्टता प्रदर्शित करता है। क्या आपको ऐसा नहीं लगता ?

द्योजीराम फौजदार
M.A. Final Political Science

संसद में घटता कामकाज

लोकतंत्र में इससे अधिक शर्मनाक बात और क्या हो सकती है, कि देश के राष्ट्रपति को सांसदों से संसद के सत्र को सुचारू रूप से चलाने की अपील करनी पडी, ताकि जनहित से जुड़े मुद्दों पर बहस हो सके।
वैसे तो संसद सत्रों का राजनीतिक कोहराम की भेंट चढ़ना कोई नयी बात नहीं है, यह बरसो की परंपरा बन गयी है।
संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होकर ख़त्म होने की तरफ बढ़ रहा है, लेकिन संसद है कि नोटबंदी के भंवर जाल में अटक कर रह गयी। विपक्ष इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री का जबाब सुनना चाहता है,परन्तु सत्ता पक्ष अपनी जिद पर अड़ा हुआ है।
माननीय राष्ट्रपति की अपील से पहले भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी जी भी संसद के ठप्प होने पर नाराजगी जता चुके हैं एवं उन्होंने तो संसदीय मंत्री  व लोकसभा अध्यक्ष को भी कठघरे में खडा कर दिया।इस सम्बन्ध में  आडवाणी जी का यह सुझाव स्वागत योग्य है कि फालतु का शोर करने वाले सांसदों को सदन से बाहर निकाल दिया जाये एवं उनके वेतन भत्तों में कटौती कर दी जाये।
वास्तव में मसला कोई भी हो, लेकिन इसके लिए जरूरी नहीं है कि संसद के विधायी कार्य रोक दिये जायें,  बल्कि देश की संसद का प्रयोग सकारात्मक बहस के लिए किया जाये।
पारंपरिक रूप में यह माना जाता है कि  संसद को चलाने की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष की होती है, परंतु इसमें विपक्ष का सहयोगात्मक रूख भी आवश्यक है।
अतः लोकसभा अध्यक्ष व राज्यसभा सभापति का यह दायित्व है कि दोनों पक्षो को बुलाकर संसदीय कामकाज को पटरी पर लाने का प्रयास करें।
मेरा सुझाव यह है कि जो सांसद संसद में कामकाज न करे व अनावश्यक बाधा उत्पन्न करे, उन सांसदों के सम्बन्ध में "काम नहीं तो दाम नहीं" की नीति अपनाई जानी चाहिये। इसका काफी हद तक असर भी होगा।
नोटबंदी के मुद्दे पर विपक्ष ने संसद की कार्यवाही बाधित कर रखी है। यह पहला मौका नहीं है, जब विपक्ष संसदीय कामकाज नहीं होने दे रहा है। आज जो नेता सरकार में हैं और विपक्ष को उसका दायित्व याद दिला रहे हैं, वे भी पूर्व में विरोध का यही तरीका अपनाते रहे हैं। यही नहीं विपक्षी दल के नेता जो पूर्व सरकार में थे, वे भी संसद ठप्प होने पर वही तर्क और भाषा इस्तेमाल करते थे, जो आज सत्ता पक्ष कर रहा है। अर्थात दोनों पक्षो ने इसे झूठी प्रतिष्ठा का सवाल बनाकर लोकतंत्र को बंधक बना रखा है।
अंत में बेचारी जनता के पास जहर का घूट पीने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है, क्योंकि समय आने पर इनमें से किसी एक को चुनना मजबूरी होगी।

द्योजीराम फौजदार
M.A. Final (Political Science)

सोमवार, 12 दिसंबर 2016

ऐतिहासिक स्वदेशी आंदोलन की वर्तमान में आवश्यकता

स्वदेशी का अर्थ:-
' अपने देश का' अथवा अपने देश में निर्मित। गांधीजी ने स्वदेशी के बारे में कहा" स्वदेशी की भावना का अर्थ है हमारी वह भावना, जो हमें दूर को छोड़ कर अपने समीपवर्ती प्रदेश का ही उपयोग और सेवा करना सिखाती है।"
वह कहते थे कि अगर हम स्वदेशी के सिद्धांत का पालन करें तो हमारा और आपका यह कर्तव्य होगा कि हम उन बेरोजगार पड़ोसियों को ढूंढे, जो हमारी आवश्यकता की वस्तुएं हमें दे सकते हैं। ऐसा हो तो भारत का हर एक गांव लगभग एक स्वाश्रयी और स्वयंपूर्ण इकाई बन जाएगा।
स्वदेशी का व्रत लेने पर कुछ असुविधाएं तो भोगनी पड़ेगी, लेकिन उन असुविधाओं के बावजूद यदि समाज के विचारशील व्यक्ति स्वदेशी का व्रत अपना ले तो हम अनेक उन बुराइयों का निवारण कर सकते हैं, जिनसे हम पीड़ित हैं।

राष्ट्रीय आंदोलन में स्वदेशी का प्रयोग:-

स्वदेशी एक शब्द नहीं अपितु राष्ट्रीय आंदोलन की आत्मा रहा है। आत्मा इस संदर्भ में कि यह वो  शब्द है जिसने ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। जिसने भारतीयों में अपनत्व, आत्म-गौरव का भाव उत्पन्न किया। दयानंद सरस्वती, तिलक, गांधी जी का प्रेरणा स्रोत रहा। आखिर क्या था स्वदेशी आंदोलन? आज क्यों आवश्यक है स्वदेशी? यह जानने से पहले हम इसके इतिहास में जाते हैं। दयानंद सरस्वती वे प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने स्वदेशी, स्वभाषा और स्वराज्य की बात की। आर्य समाज ने "भारत भारतीयों के लिए" का संदेश दिया, तिलक ने कहा "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा," तो गांधीजी इस स्वराज्य को स्वतंत्रता, स्वशासन तक ले गए।
स्वदेशी आंदोलन, बंगाल विभाजन (1905) से प्रारंभ हुआ था। स्वदेशी आंदोलन के तहत ही भारत में ब्रिटिश वस्तुओं (विदेशी वस्तुओं) का बहिष्कार एवं स्वदेश अर्थात् भारत में निर्मित वस्तुओं का प्रयोग किया गया। इससे ब्रिटिश सरकार को आर्थिक हानि हुई एवं भारत में रोजगार का सृजन एवं विकास हुआ।

स्वदेशी आंदोलन की आवश्यकता क्यों पड़ी:-

इस आंदोलन की आवश्यकता का प्रमुख कारण ब्रिटिश शासन को पराजित कर भारत को संपन्न बनाना था। ब्रिटिश शासन ने भारत को सोने की चिड़िया से गरीबों का देश बनाया था। उद्योग संपन्न देश को कृषि आधारित देश बनाया था। हमारी कुशलता के लिए कैलवर्टन ने लिखा "प्राचीनकाल में जब रोम के निजी एवं सार्वजनिक भवनों में भारतीय कपड़ों, दीवार-दरी, तामचीनी, मोज़ेक, हीरे-जवाहरात आदि का उपयोग होता था, उस वक्त से औद्योगिक क्रांति के प्रारंभ तक आकर्षक तथा सुंदर वस्तुओं के लिए सारा संसार भारत का मोहताज रहा।"
भारतीय सूती कपड़े का उपयोग बहुत अधिक होने के कारण डिफो (ब्रिटिशर) ने भी चिंता व्यक्त की, "यह भारतीय सूती कपड़ा हमारे घरों, निजी कमरों और शयन-कक्षों तक में प्रवेश पा गया, हमारे पर्दों, गद्दों, कुर्सियों और यहां तक कि हमारे बिस्तरों पर भी भारतीय कपड़े के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह गया।"
भारत की औद्योगिक उन्नति के बारे में कैलवर्टन ने लिखा "तीव्र बुद्धि, सूक्ष्म जानकारी और सृजनात्मक प्रतिभा के कारण भारतीय उद्योग पाश्चात्य देश की अपेक्षा आगे बढ़े हुए थे। शुरू की इन शताब्दियों में जब पाश्चात्य नौ-परिवहन सर्वथा अर्द्ध-विकसित अवस्था में था, तब भारत में भारी बोझ ढोने वाले समुद्री जहाज थे।"
यह तथ्य यहां इसलिए बताएं हैं ताकि हम जान सके कि हम निर्यातक देश थे जो आज हम आयातक देश बन कर रह गए। आजादी के 70 साल बाद भी हम कुछ नहीं कर पाये जो अंग्रेजी गुलामी के 50 सालों में ही कर दिया था उन्होंने-
1. 1700 में एक अधिनियम बनाकर ब्रिटेन में भारतीय कपड़े पर रोक लगा दी।
2. 1760 में इंग्लैंड में भारतीय कपड़े से बने सूती रुमाल का प्रयोग करने वाली महिला पर 200 पौंड का जुर्माना लगाया ताकि भारतीय कपड़ा ब्रिटेन में ना बिके।
3. ददनी प्रथा, व्यापारिक एकाधिकार, आयात शुल्क घटाकर भारतीय उद्योगों को मारा गया और हम देखते रहे।
      होरेस विल्सन ने लिखा है "भारतीय निर्माण उद्योग की बलि चढ़ा कर ही ब्रिटिश उद्योगों की सृष्टि की गई है। जिस तरह का प्रतिकार स्वाधीन रहने पर भारत कर सकता था, वैसा कोई आत्मरक्षक कार्य वह नहीं कर सका।............... अंततोगत्वा उन्हें पूरी तरह समाप्त कर दिया गया यद्यपि बराबर की लड़ाई में वे नहीं टिक पाते।"

      यह कुछ दृष्टांत है जिनसे पता चलता है कि हमारे उद्योगों को नष्ट किया गया।
      इसी का बदला हमारे पूर्वजों ने स्वदेशी आंदोलन चला कर लिया। गांधीजी ने उस दौरान कहा कि हर वह व्यक्ति जो देश में निर्मित वस्तु की स्थान पर विदेशी वस्तुओं का प्रयोग करता है, देशद्रोही है। स्वदेशी आंदोलन (1905) असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, भारत छोड़ो आंदोलन आदि सभी में हमने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर आजादी पाई है।

प्रभाव:-
स्वदेशी आंदोलन के कारण 1904 में जोगेंद्र चंद्र घोष ने विद्यार्थियों के तकनीकी प्रशिक्षण के लिए संस्था खोली, 1906 में बंगलक्ष्मी कॉटन मिल्स की स्थापना हुई। चीनी मिट्टी के कारखाने (कलकता पोल्ट्री वर्क्स,1906)  क्रोम टैनिक, दियासलाई उद्योग बनाने में पर्याप्त सफल रहे।
स्वदेशी आंदोलन के कारण विदेशी कपड़े का आयात 1920-21 के 102 करोड से गिरकर 1921-22 में 57 करोड रुपए रह गया। राष्ट्रवादी स्वदेशी आंदोलन से कपड़ा उद्योग को निश्चय ही लाभ हुआ था। अक्टूबर 1912 में सूती कपड़ा मिलों का शेयर मूल्य 1913 में 100 मानते हुए 275 था, जबकि अन्य शेयर मूल्य औसत 248 था। इस तरह हम देखते हैं कि जहां भारतीय उत्पाद बाजार में बढ़े, भारतीय पैसा भारत में रहा और राष्ट्रीय आंदोलन को आर्थिक सफलता मिली।

वर्तमान में आवश्यकता क्यों:-

वर्तमान में यदि गरीबी से आजादी चाहिए तो हमें विनिर्माण उद्योग लगाने होंगे। यह उद्योग नए होने के कारण उतने अच्छे उत्पाद नहीं दे पाएंगे जो हमारे पूर्वज बनाते थे। तो कुछ समय के लिए हमें इनका संरक्षण करना है जैसे ब्रिटेन ने 1700, 1760 में किया था।
यदि वे हमारे उद्योगों को नष्ट कर भारत में अपने ब्रांड भेज सकते हैं तो हमें भी आज उस अत्याचार का बदला लेना होगा, जो गुलामी के कारण हम पर हुए।
सरकारें अंतर्राष्ट्रीय कानून से डरती होंगी, आमजन नहीं। हमें हमारे उद्योगों की ढाल बनना होगा एवं उद्योगों की रक्षा करनी होगी। उन पर विश्वास करना होगा। इसी दम पर वे इन अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों का मुकाबला कर पाएंगे जो हमारे खून से सनी है। आज फिर गरीबी से आजादी के लिए हमें त्याग करना होगा, अपनों को गले लगाकर स्वदेशी आंदोलन चलाना होगा।

आनंदी लाल शर्मा (असिस्टेंट प्रोफेसर, परिष्कार कॉलेज)